Thursday, 30 November 2017

आज का सुभाषित / Today's Subhashita.


यद्ददासि विशिष्टेभ्यो  यच्चाSश्नासि  दिनेदिने  |
तत्ते  वित्तमहं  मन्ये शेषं  कस्याSपि  रक्षसि     ||
                                - सुभाषित रत्नाकर (स्फुट )

भावार्थ -     मुझे उतने ही धन की आवश्यकता होती है जिस से कि
मैं विशिष्ट व्यक्तियों को (दीन दुखियों को तथा समाज के हितार्थ )
 दान कर सकूं तथा अपनी प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर
कर सकूं | अतः मेरी यह मान्यता है कि मैं व्यर्थ में शेष बचे हुए धन
का रक्षक मात्र क्यों बना रहूं ?

(प्रस्तुत सुभाषित 'उदार प्रसंशा'  शीर्षक के अन्तर्गत संकलित है |  इस
सुभाषित के माध्यम  से यह उपदेश दिया गया है कि अपनी आवश्यकता
से अधिक धन होने पर उसे सत्पात्रों को दान दे कर तथा समाज सेवा के
कार्यों में व्यय कर देना चाहिये |)

Yaddadaasi vishishtebhyo  yacchashnaasi dinedine.
Tattey vittamaham  manye shesham kasyaapi rakshasi.

Yaddadaasi =  yat + dadaasi.    Yat = that.   Dadaasi =
gives.    Vishishtebhyo = particular, specific persons.
Yacchaashnaasi =  yat + cha +ashnaasi.    Cha = and
Ashnaasi = enjoys.   Dinedine = every day.    Tatte=
tat + tey   Tat = that.   Tey = that    Vittamaham =
vittam +aham.    Vittam = wealth, money.   Aham =
I .   Manye = I think.    Shesham = the remaining.
Kasyaapi = kasya+ api.    Kasya = whose.   Api= also,
even.    Rakshasi = guards, saves.

i.e.    I need only that much of wealth which is sufficient
to meet my day to day requirements and my specific needs
(giving donations to the needy and philanthropic work).
I, therefore, think as to why I should simply be a guard of
my remain wealth ?

(The above Subhashita is in praise of generous persons. The
idea behind this Subhashita is that people should not hoard
their surplus wealth and donate it for  philanthropic work.)



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