सर्वाः संपत्तयस्तस्य संतुष्टं यस्य मानसम् |
उपानद्गूढपादस्य ननु चर्माSSवृतेव भूः ||
अर्थ- जिस व्यक्ति का मन सदैव संतुष्ट रहता है उसकी स्थिति हर प्रकार की संपत्तियों से सम्पन्न व्यक्ति के समान होती है | जिस व्यक्ति के पांवों मे जूता हो क्या अपने पांवों की रक्षा के लिये उसे सारी पृथ्वी को चमडे से मढाने की आवश्यकता होगी ?
(इस सुभाषित द्वारा संतोष की महिमा का बखान एक सुन्दर उपमा के द्वारा किया गया है.| मनुष्य की इच्छायें और अपेक्षायें अनन्त हैं और उन सब् का पूरा होना असंभव होता है | अपने पांवों की सुरक्षा के लिये सारी पृथ्वी को चमडे से मढाने से तो अच्छा जूता पहनना ही श्रेयस्कर है , अर्थात अपनी आवश्यक्ताओं को सीमित कर संतोष करना चाहिये | )
Sarvaah sampattayastasya santushtm yasya maanasam.
Upaanadgoodhapadasya nanu charmaavruteva bhooh.
Sarvaah = every. Sampattayastasya = sampattayah +tasya.
Sampattayah = wealth, properties. Tasya = his. Santuhtam = contented.
Yasya = whose. Maanasam = mind. Upaanadgoodhapaadasya = upaant +
goodha +paadasya. Upaanat = shoe. Goodha = concealed, covered.
Padsyas = of the feet. Nanu = nodoubt, indeed, never, Charmaavruteva =
charma+aavruta +iva. Charma = leather. Avruta = covered. Iva = like.
Bhooh = the earth.
i.e. If a person always feels contented by what he has got then he is like a person having all
types of wealth. Can a person who has shoes on his feet would instead like the entire Earth to be covered with leather just to protect his feet ?
(This Subhashita has eulogised the virtue of contentment through a simile of wearing shoes rather than covering the earth with leather. One who controls his desires and is content with his lot is a real wealthy person.)
उपानद्गूढपादस्य ननु चर्माSSवृतेव भूः ||
अर्थ- जिस व्यक्ति का मन सदैव संतुष्ट रहता है उसकी स्थिति हर प्रकार की संपत्तियों से सम्पन्न व्यक्ति के समान होती है | जिस व्यक्ति के पांवों मे जूता हो क्या अपने पांवों की रक्षा के लिये उसे सारी पृथ्वी को चमडे से मढाने की आवश्यकता होगी ?
(इस सुभाषित द्वारा संतोष की महिमा का बखान एक सुन्दर उपमा के द्वारा किया गया है.| मनुष्य की इच्छायें और अपेक्षायें अनन्त हैं और उन सब् का पूरा होना असंभव होता है | अपने पांवों की सुरक्षा के लिये सारी पृथ्वी को चमडे से मढाने से तो अच्छा जूता पहनना ही श्रेयस्कर है , अर्थात अपनी आवश्यक्ताओं को सीमित कर संतोष करना चाहिये | )
Sarvaah sampattayastasya santushtm yasya maanasam.
Upaanadgoodhapadasya nanu charmaavruteva bhooh.
Sarvaah = every. Sampattayastasya = sampattayah +tasya.
Sampattayah = wealth, properties. Tasya = his. Santuhtam = contented.
Yasya = whose. Maanasam = mind. Upaanadgoodhapaadasya = upaant +
goodha +paadasya. Upaanat = shoe. Goodha = concealed, covered.
Padsyas = of the feet. Nanu = nodoubt, indeed, never, Charmaavruteva =
charma+aavruta +iva. Charma = leather. Avruta = covered. Iva = like.
Bhooh = the earth.
i.e. If a person always feels contented by what he has got then he is like a person having all
types of wealth. Can a person who has shoes on his feet would instead like the entire Earth to be covered with leather just to protect his feet ?
(This Subhashita has eulogised the virtue of contentment through a simile of wearing shoes rather than covering the earth with leather. One who controls his desires and is content with his lot is a real wealthy person.)
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