अपि मेरूपमं प्राज्ञ अपि शूरमपि स्थिरं |
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमं ||
अर्थ - यदि कोई श्रेष्ठ व्यक्ति जो विद्वत्ता में मेरु पर्वत के समान महान् और
एक योद्धा के समान स्थिर (दृढ प्रतिज्ञ ) हो तो वह् भी यदि केवल तृष्णा के वशीभूत हो
जाता है तो उसकी स्थिति क्षण मात्र में एक घास के तिनके के समान क्षुद्र और दयनीय
हो जाती है |
(मनुष्य में आशा , लोभ और तृष्णा ये तीन प्रवृत्तियां कृमशः उत्पन्न होती हैं | आशा
सामान्य प्रवृत्ति है जिस से मनुष्य कर्म करने के लिये प्रवृत्त होता है | अधिक प्राप्त
करने की प्रवृत्ति आशा को लोभ में परिवतित कर देती है | और जब लोभ असीम हो जाता
है तो वह् तृष्णा में परिवर्तित हो जाता है | तृष्णा के वशीभूत व्यक्ति फिर भला बुरा कुछ
नहीं देखता है और निषिद्ध कार्य भी अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिये करने लगता है और तब
उसका पतन निश्चित् हो जाता है चाहे वह् एक महान और प्रतिष्ठित व्यक्ति ही क्यों न
हो | इसी तथ्य को इस सुभषित में व्यक्त किया गया है |)
Api meroopamam pragya api shooramapi sthiram.
Truneekaroti trushnaikaa nimeshena narottamam.
Api = eve. Meroopamam = meru + upamam. Meru = name of the
mountain of Gods. Upamam = like. Praagya = highly learned.
Shooramapi = shooram + api. Shooram = a brave person, a warrior.
Sthiram = firm, resolute.. Trunee = like an ordinary grass blade.
Karoti = does. Trushnaikaa= Trushnaa +eka. Trushnaa = greed.
ekaa = single Nimeshena = within a moment. Narottamam = best of men
i.e. A distinguished person may be learned and very respectable like the
Meru mountain of the Gods and may be resolute and brave like a warrior,
But if he becomes greedy and not able to control his greed, he loses all his status
in no time and becomes insignificant like a blade of ordinary grass
( Scriptures have classified desire, which is the driving force of all human activities
and progress, into three categories namely simple wish, desire and greed. When a
person becomes greedy he goes to any extent to satisfy his greed and then his downfall
is imminent, even if he may be a renowned person. This Subhashita deals with this
aspect of human nature beautifully.)
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमं ||
अर्थ - यदि कोई श्रेष्ठ व्यक्ति जो विद्वत्ता में मेरु पर्वत के समान महान् और
एक योद्धा के समान स्थिर (दृढ प्रतिज्ञ ) हो तो वह् भी यदि केवल तृष्णा के वशीभूत हो
जाता है तो उसकी स्थिति क्षण मात्र में एक घास के तिनके के समान क्षुद्र और दयनीय
हो जाती है |
(मनुष्य में आशा , लोभ और तृष्णा ये तीन प्रवृत्तियां कृमशः उत्पन्न होती हैं | आशा
सामान्य प्रवृत्ति है जिस से मनुष्य कर्म करने के लिये प्रवृत्त होता है | अधिक प्राप्त
करने की प्रवृत्ति आशा को लोभ में परिवतित कर देती है | और जब लोभ असीम हो जाता
है तो वह् तृष्णा में परिवर्तित हो जाता है | तृष्णा के वशीभूत व्यक्ति फिर भला बुरा कुछ
नहीं देखता है और निषिद्ध कार्य भी अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिये करने लगता है और तब
उसका पतन निश्चित् हो जाता है चाहे वह् एक महान और प्रतिष्ठित व्यक्ति ही क्यों न
हो | इसी तथ्य को इस सुभषित में व्यक्त किया गया है |)
Api meroopamam pragya api shooramapi sthiram.
Truneekaroti trushnaikaa nimeshena narottamam.
Api = eve. Meroopamam = meru + upamam. Meru = name of the
mountain of Gods. Upamam = like. Praagya = highly learned.
Shooramapi = shooram + api. Shooram = a brave person, a warrior.
Sthiram = firm, resolute.. Trunee = like an ordinary grass blade.
Karoti = does. Trushnaikaa= Trushnaa +eka. Trushnaa = greed.
ekaa = single Nimeshena = within a moment. Narottamam = best of men
i.e. A distinguished person may be learned and very respectable like the
Meru mountain of the Gods and may be resolute and brave like a warrior,
But if he becomes greedy and not able to control his greed, he loses all his status
in no time and becomes insignificant like a blade of ordinary grass
( Scriptures have classified desire, which is the driving force of all human activities
and progress, into three categories namely simple wish, desire and greed. When a
person becomes greedy he goes to any extent to satisfy his greed and then his downfall
is imminent, even if he may be a renowned person. This Subhashita deals with this
aspect of human nature beautifully.)
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