विसृज्य शूर्पवद्दोषान् गुणान् गृह्णन्ति साधवः |
दोषग्राही गुणत्यागी चालनी इव दुर्जनः ||
अर्थ - सज्जन व्यक्ति एक सूप के समान होते हैं और केवल
गुणों को अपना लेते हैं परन्तु दुष्ट व्यक्ति एक चलनी के समान
होते हैं और केवल दोषों को ही अपनाते हैं और गुणों को त्याग देते
हैं |
( इस सुभाषित द्वारा एक सूप तथा एक चलनी की तुलना क्रमशः
सज्जन और दुष्ट व्यक्तियों से की गयी है | जिस प्रकार एक सूप
भूसे को अलग कर अनाज को रोक लेता है वैसे ही सज्जन व्यक्ति
दोषों को त्याग कर केवल गुण ही ग्रहण करते है और इसके विपरीत
एक चलनी कंकड पत्थर रोक कर अन्य पदार्थों को अलग कर देती
है वैसे ही दुष्ट व्यक्ति केवल दोषों को ही ग्रहण करते हैं | इसी भावना
को कबीरदास जी ने भी बडी सुन्दरता से इस दोहे में व्यक्त किया है -"
साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप स्वभाव | सार सार को रखि रहे थोथा
देइ उडाय " |
Visrujya shoorpavaddoshaan gunaan gruhanaanti saadhavah.
Doshagraahee gunatyaagi chaalanee iva durjanah.
Visrujya = let go. Shoorpavaddoshan = shoorpavat +doshaan.
Shoorpavat = like a winnowing basket. Doshaaan = defects.
Gunaan = virtues, merits. Gruhnanti = accept. Saadhavah =
noble and righteous persons. Doshgraahee = accepting the
defects. Gunatyaagee = giving up what is excellent.
Chaalanee = a sieve Iva = like a. Durjanah = a wicked
person.
i.e. Noble and righteous persons are like a winnowing basket
which accepts only grain an removes the husk, whereas wicked
persons are like a sieve which retains impurities and allows the
finer good objects to pass out.
(In this Subhashita the author has differentiated between the nature
of noble persons and wicked persons by beautifully using the
Simile of a winnowing basket for the noble persons and that of a
sieve for the wicked persons)
दोषग्राही गुणत्यागी चालनी इव दुर्जनः ||
अर्थ - सज्जन व्यक्ति एक सूप के समान होते हैं और केवल
गुणों को अपना लेते हैं परन्तु दुष्ट व्यक्ति एक चलनी के समान
होते हैं और केवल दोषों को ही अपनाते हैं और गुणों को त्याग देते
हैं |
( इस सुभाषित द्वारा एक सूप तथा एक चलनी की तुलना क्रमशः
सज्जन और दुष्ट व्यक्तियों से की गयी है | जिस प्रकार एक सूप
भूसे को अलग कर अनाज को रोक लेता है वैसे ही सज्जन व्यक्ति
दोषों को त्याग कर केवल गुण ही ग्रहण करते है और इसके विपरीत
एक चलनी कंकड पत्थर रोक कर अन्य पदार्थों को अलग कर देती
है वैसे ही दुष्ट व्यक्ति केवल दोषों को ही ग्रहण करते हैं | इसी भावना
को कबीरदास जी ने भी बडी सुन्दरता से इस दोहे में व्यक्त किया है -"
साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप स्वभाव | सार सार को रखि रहे थोथा
देइ उडाय " |
Visrujya shoorpavaddoshaan gunaan gruhanaanti saadhavah.
Doshagraahee gunatyaagi chaalanee iva durjanah.
Visrujya = let go. Shoorpavaddoshan = shoorpavat +doshaan.
Shoorpavat = like a winnowing basket. Doshaaan = defects.
Gunaan = virtues, merits. Gruhnanti = accept. Saadhavah =
noble and righteous persons. Doshgraahee = accepting the
defects. Gunatyaagee = giving up what is excellent.
Chaalanee = a sieve Iva = like a. Durjanah = a wicked
person.
i.e. Noble and righteous persons are like a winnowing basket
which accepts only grain an removes the husk, whereas wicked
persons are like a sieve which retains impurities and allows the
finer good objects to pass out.
(In this Subhashita the author has differentiated between the nature
of noble persons and wicked persons by beautifully using the
Simile of a winnowing basket for the noble persons and that of a
sieve for the wicked persons)
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