Thursday, 23 June 2016

Today's Subhashita.

सच्छिद्रो मध्यकुटिलः कर्णः स्वर्णस्य भाजनम्  |   -सुभाषितरत्नाकर
धिग्दैवनिहतं   नेत्रं  पात्रं  कज्जलभस्मनः          ||       (शार्ङ्गधर)

भावार्थ -       उस भाग्य को धिक्कार है जो कानों को , जिनके मध्य में
छिद्र होता है और जो टेढेमेढे  भी होते हैं, उन्हें स्वर्ण (आभूषणों) को
धारण कराता है   और (सुन्दर)  नेत्रों को हानि पहुंचा  कर दीपक की
कालिख से  पुतवाने के योग्य  समझता है  |

(उपर्युक्त  सुभाषित 'दैव" शीर्षक के अन्तर्गत संकलित है |     भाग्य
का मानव जीवन में बडा ही विचित्र प्रभाव पडता है | योग्य होते हुए भी
कोई व्यक्ति अभावग्रस्त रहता है और अयोग्य व्यक्ति संपन्न होते है
जैसा कि एक अन्य सुभाषित में कहा गया है कि - "भाग्यं फलति सर्वत्र
न च विद्या न च पौरुषं " |  यही बात इस सुभाषित में कान और नेत्रों की
आपस में तुलना द्वारा इस सुभाषित में भी कही गयी है कि कुरूप कानों
को स्वर्ण (समृद्धि का प्रतीक) से सुशोभित किया जाता है और सुन्दर नेत्रों
को कालिख से | अपना अपना भाग्य है |)

Sacchidro madhyakutilah karnah svarnasya bhaajanam .
Dhigdaivanihatam netram paatr kaajjalabhasmanah.

Scchidrao = with a hole., perforated.   Madhyakutilah =
Madhya + kutilah.    Madhya = middle of the body..  Kutilah =
curved, crooked.   Karnah = the ear.  Svarnasya = of the Gold.
Bhajanah = recipient., sharer.   Dhigdaivanihatam =  Dhik +
daiva + nihatam,    Dhik = shame upon.   Daiva = the Destiny.
Nihatam = struck down, afflicted with.   Netram = the eyes.
Paatram =  worthy of , receiver of.       Kajjala = lampblack.
Bhasmanah = ash. powder.

i.e.       Shame upon the Destiny, .which considers  the ears, which
have a hole in the middle and are curved, as a proper recipient  of
gold (ornaments) and considers the beautiful eyes  worthy of  the
lampblack

(The above Subhashita is classified under the sub-head "Destiny",
which plays a very important role in a person's life. There are
numerous instances of incompetent persons becoming rich and
competent persons as very poor. This subhashita underlines this
phenomenon through the simile of ears and eyes very powerfully.)




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