Sunday, 16 April 2017

आज का सुभाषित / Today's Subhashita


काष्टाद्यथाग्निरुत्पन्न: स्वाश्रयं दहति क्षणात्  |
क्रोधाग्निर्देहजस्तद्वत्तमेव   दहति  ध्रुवं           || - नगसुभषित सं ग्रह (९९६० )

भावार्थ -    जिस प्रकार लकडी के  टुकडों  को आपस में जोर से रगडने से
उनमें स्वतः ही  अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वे तत्क्षण जल उठते हैं ,
वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी क्रोध रूपी अग्नि छुपी होती है और विवाद या
झगडे की स्थिति में निश्चय ही सुलग  कर उसे जला देती (हानि पहुंचाती)  है |

(प्राचीन समय के अग्नि उत्पन्न करने के तरीके को एक अलङ्कार के रूप
में प्रयुक्त कर इस सुभाषित मे क्रोध की निन्दा की गयी है |  तुलसीदास जी
ने भी कहा है कि - ' अति संघर्षण करे  जो कोई | अनल प्रकट चन्दन ते होई '
तात्पर्य यह  है कि अत्यन्त दुर्व्यवहार करने पर शान्त स्वभाव के व्यक्ति भी
क्रोधित हो जाते हैं |  यहां चन्दन शीतलता का प्रतीक हैं | )

Kaashthaadyathaagnirutpannah  svaashryam dahati kshanaat.
Krodhaagnirdehajastadvattameva  dahati dhruvam.

Kaashtaat = in a piece of timber or wood.  Yathaa = for instance.
Agnih = fire.   Utpannah = produced.     Svaashryam = on its own.
Dahati = burns.   Kshanaat = instantly, at once.   Krodhaagni =anger
like a fire,    Dehajah = inside the body.    Tadvat = in the same manner.
Tameva = to him also.    Dahati burns.    Dhruvam = certainly.

i.e.     For instance,  fire is produced between  two pieces of wood on
being rubbed together vigorously and burns them  instantly, in the
same manner when the instinct  of anger like a fire  hidden inside the
mind of a person  flares up during a quarrel or conflict it certainly
(burns) causes harm to   him.

(The primitive way of producing a fire has been used as a metaphor in
this Subhashita  and exhorts us to be on guard against the instinct of
anger.)


  

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