काष्टाद्यथाग्निरुत्पन्न: स्वाश्रयं दहति क्षणात् |
क्रोधाग्निर्देहजस्तद्वत्तमेव दहति ध्रुवं || - नगसुभषित सं ग्रह (९९६० )
भावार्थ - जिस प्रकार लकडी के टुकडों को आपस में जोर से रगडने से
उनमें स्वतः ही अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वे तत्क्षण जल उठते हैं ,
वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी क्रोध रूपी अग्नि छुपी होती है और विवाद या
झगडे की स्थिति में निश्चय ही सुलग कर उसे जला देती (हानि पहुंचाती) है |
(प्राचीन समय के अग्नि उत्पन्न करने के तरीके को एक अलङ्कार के रूप
में प्रयुक्त कर इस सुभाषित मे क्रोध की निन्दा की गयी है | तुलसीदास जी
ने भी कहा है कि - ' अति संघर्षण करे जो कोई | अनल प्रकट चन्दन ते होई '
तात्पर्य यह है कि अत्यन्त दुर्व्यवहार करने पर शान्त स्वभाव के व्यक्ति भी
क्रोधित हो जाते हैं | यहां चन्दन शीतलता का प्रतीक हैं | )
Kaashthaadyathaagnirutpannah svaashryam dahati kshanaat.
Krodhaagnirdehajastadvattameva dahati dhruvam.
Kaashtaat = in a piece of timber or wood. Yathaa = for instance.
Agnih = fire. Utpannah = produced. Svaashryam = on its own.
Dahati = burns. Kshanaat = instantly, at once. Krodhaagni =anger
like a fire, Dehajah = inside the body. Tadvat = in the same manner.
Tameva = to him also. Dahati burns. Dhruvam = certainly.
i.e. For instance, fire is produced between two pieces of wood on
being rubbed together vigorously and burns them instantly, in the
same manner when the instinct of anger like a fire hidden inside the
mind of a person flares up during a quarrel or conflict it certainly
(burns) causes harm to him.
(The primitive way of producing a fire has been used as a metaphor in
this Subhashita and exhorts us to be on guard against the instinct of
anger.)
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