अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि वासयन्ति करद्वयम् |
अहो सुमनसां प्रीतिर्वामदक्षिणयोः समा ||
सुभाषित रत्नाकर (प्रसंग रत्नावली )
भावार्थ = हाथों की अञ्जलि मे स्थित पुष्प दोनों ही हाथों को
अपनी सुगन्ध से भर देते हैं | अहो ! उसी प्रकार सज्जन और
सहृदय व्यक्ति भी दायें या बायें का भेद भाव न कर सब से एक
समान प्रेम करते हैं |
(इस सुभाषित में संत जनों के प्रशंसा एक उपमा के द्वारा की
गई है | इसी भावना को गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण में
इस दोहे के रूप में प्रस्तुत किया है :-
बन्दउं संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ |
अञ्जलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगन्ध कर दोइ ||)
Anjalisthaani pushpaani vaasayanti karadvyam.
Aho sumanasaam preetirvaamadakshinayoh samaa.
Anjalisthaani = situated inside the cavity produced by
joining the palms of both the hands. Pushpaani =flowers.
Vaasayanti =make fragrant. Karadvyam =both the hands .
Aho = Oh ! Suumanasaam = noble and virtuous persons.
Preetirvaamadakshino= preetih + vaama+ dakshinayoh .
Preetih =kindness . Vaam = left side. dakshinayoh = right
side. Samaa = equal, the same.
i.e. Flowers held inside the cavity by joining palms of both
hands make both the palms fragrant. Aah ! in the same manner
noble and virtuous men also show their kindness to every body
in the society without any discrimination.
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