Friday, 13 July 2018

आज का सुभाषित / Today's Subhashita.



संतोषामृततृप्तानां  यत्सुखं  शान्तिरेव  च  |
न  च  तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च  धावताम्  ||
                                  - चाणक्य नीति (७/३ )

भावार्थ -  जो सुख और शान्ति संतोष रूपी अमृत का पान कर
तृप्त हुए व्यक्तियों को प्राप्त होती है वह धन के लोभी व्यक्तियों
को कभी नहीं प्राप्त होती है  और उनका मन और भी अधिक धन
अर्जित करने  के लिये इधर उधर भटकता रहता है |

( अत्यधिक धनार्जन करने  की प्रवृत्ति अन्ततः तृष्णा में परिवर्तित
हो जाती है | अतः इस सुभाषित में यही शिक्षा दी गयी है कि मात्र धन
अर्जित करने  से सुख और शान्ति प्राप्त नहीं होती है और वह तभी
प्राप्त होती है जब कोई व्यक्ति अपनी उपलब्धि पर संतुष्ट हो |  इसी
भावना को एक कवि  ने इस प्रकार व्यक्त किया है  -
            गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खान  |
             जब आवे संतोष धन सब धन धूरि  समान  ||
       (गज = हाथी     बाजि = घोडे   रतन = मूल्यवान हीरे मोती)

Santoshaamruta-taptaanaam  yatsukham shaantireva cha,
Na cha taddhanalubdhaanaamitashchetashcha  dhaavataam.

Santosha +amruta+ truptaanaam.    Santosha =contentedness.
Amruta = the nectar of gods.  Truptaanaam = satiated persons.
Yat+sukham.    Yat = that.   Sukham =happiness.   Shaanti+eva.
Shaanti = peace of mind.   Eva = also.    Cha = and.   Na = not.
Tat +dhana + lubdhaanaam + itah + chetah + cha.   Tat = that.
 Dhana = wealth.   Lubdhaanaam= greedy persons.  Itah = here
(and there)   Chetah = mind.    Dhaavataam = runs.

i.e.        The happiness and peace of mind a person satiated by
contentedness akin to drinking 'Amruta' , the nectar of Gods, can
never be achieved by the greedy persons who are after acquiring
more and more wealth , because their mind always runs here and
there in the pursuit of wealth.

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