यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किं |
लोचनाभ्यां विहीनश्च दर्पणः किं करिष्यति ||
- चाणक्य नीति (१०/९ )
भावार्थ - जो व्यक्ति स्वयं बुद्धिहीन हो उसको विभिन्न
शास्त्रों की शिक्षा देने से क्या लाभ होगा ? अपने दोनों नेत्रों
से वञ्चित एक अन्धे व्यक्ति के लिये एक दर्पण की भला
क्या उपयोगिता है ?
(उपर्युक्त सुभाषित में एक बुद्धिहीन व्यक्ति और एक अन्धे
व्यक्ति के बारे में प्रश्न किये गये हैं और उत्तर की अपेक्षा की
गयी है |इस का उत्तर है कि जिस प्रकार एक अन्धे व्यक्ति के
लिये एक दर्पण की कोई उपयोगिता नहीं है उसी प्रकार एक मूर्ख
व्यक्ति के लिये शास्त्रो की भी कोई उपयोगिता नहीं है |
Yasya naasti svyam pragyaa shaastram tasya karoti Kim.
Lochanaabhyaam viheenashcha darpanah kim karishyati.
Yasya = of that person. Naasti =non- existence. Svyam =
himself. Pragyaa = intelligence. Shaastram = various
disciplines of learning, books or treatises. Tasya = his.
Karoti = does. Kim = what ? Lochanaabhyaam =both the
eyes. Viheenah+cha. Viheenah =a person deprived of some
thing. Cha=and. Darpanah=a mirror. Karishyati = can do.
i.e. If a person is not intelligent, of what use is teaching him
various disciplines of learning ? Of what use is a mirror to a
person who has no eyesight in both his eyes ?
(In this Subhashita two statements have been given respectively
for an idiot and a blind person, and the author asks what will be
the end result. The answer is that just as a mirror is useless for
a blind person, so are the various disciplines of learning for an
idiot.)
No comments:
Post a Comment