कवयः परितुष्यन्ति नेतरे कविसूक्तिभिः |
नह्यकूपारवत्कूपा वर्धन्ते विधुकान्तिभिः ||
अर्थ - कान्तियुक्त चन्द्रमा को देख कर जिस प्रकार समुद्र का जल स्तर बढने लगता है
उसी तरह से कुओं का जल स्तर नहीं बढता है | कवि गण भी कुओं की तरह आचरण कर अन्य
कवियों की कविताओं को सुन कर संतुष्ट और आनन्दित नहीं होते है |
(इस सुभाषित मे अप्रत्यक्ष रूप से सज्जन और महान् व्यक्तियों की तुलना समुद्र से की गयी है |
पूर्णमासी तिथि को जब चन्द्रमा सर्वाधिक कान्तियुक्त होता है तो समुद्र में चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण
से ज्वार उत्पन्न होने से उसका जल स्तर बढ जाता है | उसी तरह सज्जन व्यक्ति भी किसी अन्य
व्यक्ति की संपन्नता देख कर प्रसन्न होते हैं | परन्तु कवियों में प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या इतनी अधिक
होती है कि वे अन्य कवियों की कविताओं से प्रमुदित नहीं होते हैं यद्यपि बाहरी व्यवहार में उनकी
प्रसंशा करते है | उनकी तुलना कुओं से की गयी है जिन के जल में समुद्र के समान ज्वार नहीं आता है )
Kavayah paritushyanti netare kavisooktibhih.
Nahyakoopaarvatkoopaa vardhante vidhukaantibhih.
Kavayah = poets. Paritushyanti = be quite satisfied. Netare = na+ itare.
Na = not. Itare = another. Kavisooktibhih = Kavi +sooktibhih.
Kavi = poet. Sooktibhih = beautiful verses. Nahyakoopaaravatkoopaa = nahi +
akoopaara +vat +koopaa. Nahi = not. Akoopaar =the Ocean.
Vat = like (implying resemblence). Vardhante = grow, exalted.
Vidhukaantibhh = vidhu + kaantibhih. Vidhu = moon. Kaantibhih = beauty.splendour.
i.e. The level of water in a well does not increase like that of the ocean by facing the bright and beautiful Moon. Likewise, poets are also not satisfied at the beautiful verses composed by other poets.
( Through this Subhashita the author has indirectly praised the noble and virtuous persons, who are elated by observing the progress of other persons, unlike mean persons,who are envious at the progress of others. This fact has been highlighted by the use of a simile of the Ocean, in which tides are formed on the day of full Moon, whereas the water of wells remains unaffected. For the poets the simile of a well has been skillfully used. )
नह्यकूपारवत्कूपा वर्धन्ते विधुकान्तिभिः ||
अर्थ - कान्तियुक्त चन्द्रमा को देख कर जिस प्रकार समुद्र का जल स्तर बढने लगता है
उसी तरह से कुओं का जल स्तर नहीं बढता है | कवि गण भी कुओं की तरह आचरण कर अन्य
कवियों की कविताओं को सुन कर संतुष्ट और आनन्दित नहीं होते है |
(इस सुभाषित मे अप्रत्यक्ष रूप से सज्जन और महान् व्यक्तियों की तुलना समुद्र से की गयी है |
पूर्णमासी तिथि को जब चन्द्रमा सर्वाधिक कान्तियुक्त होता है तो समुद्र में चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण
से ज्वार उत्पन्न होने से उसका जल स्तर बढ जाता है | उसी तरह सज्जन व्यक्ति भी किसी अन्य
व्यक्ति की संपन्नता देख कर प्रसन्न होते हैं | परन्तु कवियों में प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या इतनी अधिक
होती है कि वे अन्य कवियों की कविताओं से प्रमुदित नहीं होते हैं यद्यपि बाहरी व्यवहार में उनकी
प्रसंशा करते है | उनकी तुलना कुओं से की गयी है जिन के जल में समुद्र के समान ज्वार नहीं आता है )
Kavayah paritushyanti netare kavisooktibhih.
Nahyakoopaarvatkoopaa vardhante vidhukaantibhih.
Kavayah = poets. Paritushyanti = be quite satisfied. Netare = na+ itare.
Na = not. Itare = another. Kavisooktibhih = Kavi +sooktibhih.
Kavi = poet. Sooktibhih = beautiful verses. Nahyakoopaaravatkoopaa = nahi +
akoopaara +vat +koopaa. Nahi = not. Akoopaar =the Ocean.
Vat = like (implying resemblence). Vardhante = grow, exalted.
Vidhukaantibhh = vidhu + kaantibhih. Vidhu = moon. Kaantibhih = beauty.splendour.
i.e. The level of water in a well does not increase like that of the ocean by facing the bright and beautiful Moon. Likewise, poets are also not satisfied at the beautiful verses composed by other poets.
( Through this Subhashita the author has indirectly praised the noble and virtuous persons, who are elated by observing the progress of other persons, unlike mean persons,who are envious at the progress of others. This fact has been highlighted by the use of a simile of the Ocean, in which tides are formed on the day of full Moon, whereas the water of wells remains unaffected. For the poets the simile of a well has been skillfully used. )
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