अनन्तपदविन्यासरचना सरसाः कवेः |
बुधो यदि समीपस्थो न कुजन्मा पुरो यदि ||
अर्थ - कल्पनाशील और सहृदय कवि विभिन्न प्रकार के पदों की
रचना करने के लिये लिये तभी प्रेरित और सक्षम होते है यदि वे
विद्वान् और गुणग्राही व्यक्तियों की संगति में हों | परन्तु यदि
उनके सामने नीच और संस्कार विहीन व्यक्ति हों तो उन्हें काव्य
रचना की प्रेरणा नहीं मिलती है |
(संगीत, साहित्य तथा अन्य ललित कलाओं के प्रचार प्रसार के लिये
अनुकूल वातावरण होना अत्यावश्यक होता है जिस हेतु कलाकारों
के अतिरिक्त जानकार और सहृदय श्रोताओं का होना भी उतना ही
महत्त्वपूर्ण होता है | इसी तथ्य को इस सुभाषित में व्यक्त किया गया
है )
Anantapadavinyaasarachanaa sarasaah Kaveh /
Budho yadi sameepastho na kujanmaa puro yadi.
Anant = numerous. Padavinyaasa =pada+vinyaas.
Pada = verse. Vinyaas = arrangement, composition.
Rachanaa = creation. Sarasaah =elegant and imaginative.
Kaveh = poets. Budho = learned person. Yadi = if .
Sameepastho = are nearby Na = not. Kujanmaa =
persons of inferior origin or background. Puro =in front.
Yadi = if.
i.e. A versatile and imaginative poet gets encouragement
and incentive to create numerous styles of poetry when he is in
the company of knowledgeable and appreciative persons, but not
so if the persons before him are of inferior background and
insensitive .
( For furtherance of music, poetry and other fine arts besides the
performing artists, an appreciative and knowledgeable audience
is equally important. This fact has been highlighted in the above
Subhashita.)
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