विद्याविहीना बहवोSपि पुत्राः कल्पायुषः सन्तु पितुः किमेतैः |
क्षयिष्णुना वाSपि कलावता वा तस्यःप्रमोदः शशिनेव सिंधोः ||
- सुभषितरत्नाकर
अर्थ - यदि किसी व्यक्ति के बहुत सारे पुत्र हों पर यदि वे विद्या से
विहीन (मूर्ख ) हों और वे हजारों वर्ष की आयु तक जीवित रहने वाले ही
क्यों न हों , इस से उनके पिता को क्या लाभ होगा ? इस के विपरीत
यदि वे पुत्र चाहे मरणशील ही क्यों न हों पर यदि वे अनेक कलाओं के
ज्ञाता हों तो वे अपने पिता को वैसी ही प्रसन्नता प्रदान करते हैं जैसा कि
चन्द्रमा समुद्र को प्रदान करता है |
(इस सुभाषित मे एक गुणवान पुत्र की तुलना चन्द्रमा से की गयी है | जिस
प्रकार चन्द्रमा की कलाओं में क्रमशः वृद्धि होने से समुद्र में ज्वार उत्पन्न
होता है वैसे ही अपने गुणवान पुत्र को देख कर एक पिता का मन भी समुद्र
की तरह हिलोरें लेने लगता है |
Vidyaaviheenaa bahavopi putraah kalpaayushh santu pituh kimetaih.
Kshyishnunaa vaapi kalaavataa vaa tasya pramodah shashineva simdhoh.
Vidyaa = knowledge, learning. Viheena = not having. Bahavopi =
Bahavo + api Bahavo = many. Api = even. Putraah = sons.
Kalpaayushah = having a lifespan of a 'Kalpa' i.e thousands of years.
Santu = become/ Pituh = to the father. Kimetaih kim +etaih.
Kim = what ? Etaih = all these. Kshayishnunaa = perishable.
Vaapi = vaa + api. Vaa = and. Kalaaataa = expert in various arts..
Tasya = their. Pramodah = joy. Shashineva = shashine +iva.
Shashine = by thr moon. iva = like (for comparison). Sindhoh =
the Ocean.
i.e. Of what use are many sons of a person to him if they are bereft
of any knowledge, even if they may be having a very long life ? On the
other hand if they are even perishable but are experts in various arts, they
bring extreme joy to their father just like the Moon gives to the Ocean.
(In this Subhashita a virtuous son has been alluded to the Moon. Just
as during waxing and waning of the Moon the level of the Ocean increases
known as high tide, similarly the joy of a father increases by seeing his son
acquiring knowledge and expertise in various subjects.)
क्षयिष्णुना वाSपि कलावता वा तस्यःप्रमोदः शशिनेव सिंधोः ||
- सुभषितरत्नाकर
अर्थ - यदि किसी व्यक्ति के बहुत सारे पुत्र हों पर यदि वे विद्या से
विहीन (मूर्ख ) हों और वे हजारों वर्ष की आयु तक जीवित रहने वाले ही
क्यों न हों , इस से उनके पिता को क्या लाभ होगा ? इस के विपरीत
यदि वे पुत्र चाहे मरणशील ही क्यों न हों पर यदि वे अनेक कलाओं के
ज्ञाता हों तो वे अपने पिता को वैसी ही प्रसन्नता प्रदान करते हैं जैसा कि
चन्द्रमा समुद्र को प्रदान करता है |
(इस सुभाषित मे एक गुणवान पुत्र की तुलना चन्द्रमा से की गयी है | जिस
प्रकार चन्द्रमा की कलाओं में क्रमशः वृद्धि होने से समुद्र में ज्वार उत्पन्न
होता है वैसे ही अपने गुणवान पुत्र को देख कर एक पिता का मन भी समुद्र
की तरह हिलोरें लेने लगता है |
Vidyaaviheenaa bahavopi putraah kalpaayushh santu pituh kimetaih.
Kshyishnunaa vaapi kalaavataa vaa tasya pramodah shashineva simdhoh.
Vidyaa = knowledge, learning. Viheena = not having. Bahavopi =
Bahavo + api Bahavo = many. Api = even. Putraah = sons.
Kalpaayushah = having a lifespan of a 'Kalpa' i.e thousands of years.
Santu = become/ Pituh = to the father. Kimetaih kim +etaih.
Kim = what ? Etaih = all these. Kshayishnunaa = perishable.
Vaapi = vaa + api. Vaa = and. Kalaaataa = expert in various arts..
Tasya = their. Pramodah = joy. Shashineva = shashine +iva.
Shashine = by thr moon. iva = like (for comparison). Sindhoh =
the Ocean.
i.e. Of what use are many sons of a person to him if they are bereft
of any knowledge, even if they may be having a very long life ? On the
other hand if they are even perishable but are experts in various arts, they
bring extreme joy to their father just like the Moon gives to the Ocean.
(In this Subhashita a virtuous son has been alluded to the Moon. Just
as during waxing and waning of the Moon the level of the Ocean increases
known as high tide, similarly the joy of a father increases by seeing his son
acquiring knowledge and expertise in various subjects.)
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