Monday, 11 April 2016

Today's Subhashita.

आत्मापि चायं न  मम  सर्वा वा  पृथिवी मम  |
यथा मम तथान्येषां इति बुद्ध्या न में व्यथा ||   -महासुभषितसंग्रह (4649)

अर्थ -     हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिये कि यह पृथिवी (जमीन 
जायदाद) और  अन्य सब कुछ मेरा हो जाये  |  यदि हम यह समझ  जायें
कि हमारी तरह और  लोग भी  ऐसा ही सोच सकते  हैं तो फिर हमें  अपने
जीवन मे व्यर्थ में कष्ट नहीं  उठाना पडेगा  |

(एक सीमा से अधिक धन संपत्ति की चाह तृष्णा में परिवर्तित  हो जाती
है और ऐसा व्यक्ति सब् कुछ अपने  पास होते  हुए  भी  सुखी नहीं  होता
है |  इस सुभाषित में इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए तृष्णा से  बचने  का
परामर्श दिया गया है  |)

Aatmaapi chaayam na mama sarvaa vaa pruthivi  mama.
Yathaa mama tathaanyeshaam  iti buddhyaa na me vyathaa.

Aatmaapi = aatma + api.     Aatma = self      Api = even.    Chaayam =
cha + ayam.     Cha = and.    Ayam = this.     Mama = mine.   Sarvaa =
all.     Vaa - is.    Pruthivi = land, earth.    Yathaa = for instance.
Tathaanyeshaam = tathaa +anyeshaam.    Tathaa = thus.   Anyeshaam +
other persons.    Iti = this.    Buddhyaa = by understanding.   Na = not.
Me = to mem.    Vyathaa = agony, pain.

i.e.      One should never crave to possess  all the  thing on this earth.
If we are able to  understanding  that other persons  can also think in
the same manner, then we will be spared of much pain and agony in
our daily life.
.
(Insatiable  desire to possess every thing in life turns into greed and a
greedy person is never happy in spite of possessing all the comforts
of life.  This Subhashita warns against such a tendency among men.)

No comments:

Post a Comment