अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्रान्यनेकशः |
ब्रह्मत्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा ||१ ||
यथाखरचन्दनभारवाही भारस्यवेता न तु चन्दनस्य |
तथैव विप्रा: षट्शास्त्रयुक्ता सद्ज्ञानहीनाः खरवद् वहन्ति ||२||
भावार्थ - "चारों वेदों एवं अनेक शास्त्रों को पढ लेने के बाद भी यदि
ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ तो वह वैसा ही है जैसे कलछुली अनेक व्यञ्जनों
में घूमते हुए भी उनके स्वाद से अनभिज्ञ रह जाती है | जैसे एक गधा
चन्दन का भार ढोता है परन्तु उसकी सुगन्धा को नहीं जानता है ,वैसा
ही वः विद्वान् है जो शास्त्रों का ज्ञाता हो कर भी सद् ज्ञान से हीन है |
वह गधे के बोझ के समान छहों शास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी विद्या
मद का बोझ ढो रहा है |
(सनातन धर्म ने तो सबको बराबर का मनुष्य बनाया था, पर कुछ मूढ-
मगजों और संविधान के अनुच्छेद ३४१ ने जन्मना शूद्र बना दिया ) "
उपर्युक्त श्लोक और उनका अनुवाद मैने सुश्री पायल अग्रवाल की दिनांक
22 जुलाई 2016 की एक पोस्ट से उधृत किया है , जिसे मैने 23 जुलाई
को साझा भी किया था | अपनी पोस्ट में सुश्री पायल अग्रवाल ने भारत
के तथाकथित 'सेक्युलर' बुद्धिजीवियों की आलोचना इस लिये की थी कि
उनके लिये हमारा अतीत गौरवपूर्ण होते हुए भी महत्त्वहीन है और वे
पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर सनातन धर्म को ही ,हमारी वर्ण व्यवस्था के लिये
दोषी मानते है और अन्य धर्मों को श्रेष्ठ समझते हैं जो कि सर्वथा असत्य है |
उपर्युक्त दोनों श्लोक उनकी इसी मानसिकता के द्योतक हैं |
मेरा सबसे पुनः अनुरोध है कि सुश्री पायल अग्रवाल् का अत्यन्त सारगर्भित
लेख एक बार पुनः पढ कर उसका मनन करें तथा 'शेयर' कर इन 'सेक्युलरों'
द्वारा समाज में फैलाई जा रही भ्रान्ति को दूर करने में सहायता करें | किसी
कवि ने कहा भी है कि - "जिस को न निज भाषा तथा निज धर्म पर अभिमान है |
वह नर नहीं, नरपशु निरा है, और मृतक समान है | ' धन्यवाद |
ब्रह्मत्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा ||१ ||
यथाखरचन्दनभारवाही भारस्यवेता न तु चन्दनस्य |
तथैव विप्रा: षट्शास्त्रयुक्ता सद्ज्ञानहीनाः खरवद् वहन्ति ||२||
भावार्थ - "चारों वेदों एवं अनेक शास्त्रों को पढ लेने के बाद भी यदि
ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ तो वह वैसा ही है जैसे कलछुली अनेक व्यञ्जनों
में घूमते हुए भी उनके स्वाद से अनभिज्ञ रह जाती है | जैसे एक गधा
चन्दन का भार ढोता है परन्तु उसकी सुगन्धा को नहीं जानता है ,वैसा
ही वः विद्वान् है जो शास्त्रों का ज्ञाता हो कर भी सद् ज्ञान से हीन है |
वह गधे के बोझ के समान छहों शास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी विद्या
मद का बोझ ढो रहा है |
(सनातन धर्म ने तो सबको बराबर का मनुष्य बनाया था, पर कुछ मूढ-
मगजों और संविधान के अनुच्छेद ३४१ ने जन्मना शूद्र बना दिया ) "
उपर्युक्त श्लोक और उनका अनुवाद मैने सुश्री पायल अग्रवाल की दिनांक
22 जुलाई 2016 की एक पोस्ट से उधृत किया है , जिसे मैने 23 जुलाई
को साझा भी किया था | अपनी पोस्ट में सुश्री पायल अग्रवाल ने भारत
के तथाकथित 'सेक्युलर' बुद्धिजीवियों की आलोचना इस लिये की थी कि
उनके लिये हमारा अतीत गौरवपूर्ण होते हुए भी महत्त्वहीन है और वे
पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर सनातन धर्म को ही ,हमारी वर्ण व्यवस्था के लिये
दोषी मानते है और अन्य धर्मों को श्रेष्ठ समझते हैं जो कि सर्वथा असत्य है |
उपर्युक्त दोनों श्लोक उनकी इसी मानसिकता के द्योतक हैं |
मेरा सबसे पुनः अनुरोध है कि सुश्री पायल अग्रवाल् का अत्यन्त सारगर्भित
लेख एक बार पुनः पढ कर उसका मनन करें तथा 'शेयर' कर इन 'सेक्युलरों'
द्वारा समाज में फैलाई जा रही भ्रान्ति को दूर करने में सहायता करें | किसी
कवि ने कहा भी है कि - "जिस को न निज भाषा तथा निज धर्म पर अभिमान है |
वह नर नहीं, नरपशु निरा है, और मृतक समान है | ' धन्यवाद |
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