कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभं |
सम्यक्त्वमुच्यते सारं सर्वेषां धर्मकर्मणां || - महासुभषितसंग्रह(८५६२)
भावार्थ - जिस प्रकार नेत्रों की यथार्थता (शोभा) उनकी पुतलियों से
तथा पुष्पों की उनकी सुगन्ध से होती है, उसी प्रकार सभी धार्मिक कृत्यों
का सार भी उनको भली प्रकार श्रद्धापूर्वक परिपूर्ण करने में है |
(इस सुभाषित का तात्पर्य यह् है कि जिस प्रकार बिना पुतलियों के नेत्र
तथा बिना सुगन्ध के पुष्प शोभा नहीं देते हैं उसी प्रकार विभिन्न धार्मिक
कृत्य भी बिना समर्पण और श्रद्धा के शोभित नहीं होते हैं |)
Kaneenikeva netrasya kusumasyeva saurabham,
Samyaktvamuchyate saaram sarveshaam dharmakarmanaam ,
Kaneenikeva = kaneenika+iva. Kaneenika = eyeballs, Iva =
like (for comparison) . Netrasya = of the eyes. Kusumasyeva=
Kusumasya+ iva. Kusumasya = of a flower's . Saurabham =
fragrance. Samyaktvamuchyate = samyaktvam + uchyate,
Samyaktvam = perfection, completeness. Uchyate = be spoken.
Saaram = essence, fundamental. Sarveshaam = all , every one.
Dharmakarmanaam = various pious duties or actions.
i.e, Just as the beauty and perfection of eyes depends on its
eyeballs and that of flowers is in their fragrance, in the same
manner doing all the duties to perfection (and with devotion) is
also fundamental in all religious duties.
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