Monday, 13 March 2017

आज का सुभाषित / Today's Subhashita.


काकतालीयवत्प्राप्तं दृष्ट्वापि निधिमग्रतः |
न   स्वयं   दैवमादत्ते  पुरुषार्थमपेक्षते ||  - महासुभषितसंग्रह(९२९६)

भावार्थ -    "काकतालीय न्याय" के समान(अचानक) किसी व्यक्ति को
भाग्यवश अपने  सामने एक खजाना दिख जाये तो उसे प्राप्त करने
के लिये उसे भी स्वयं पुरुषार्थ करना पडता है , ईश्वर  स्वयं आ कर उसे
खजाना  नहीं सोंपता है |

(संस्कृत में 'काकतालीय न्याय " नामक अवधारणा  है जो इस प्रकार है -
काकतालीय न्याय—किसी ताड़ के पेड़ के नीचे कोई पथिक लेटा था और ऊपर एक 
कौवा बैठा था। कौवा किसी ओर को उडा़ और उसके उड़ने के साथ ही ताड़ का एक 
पका हुआ फल नीचे गिरा। यद्यपि फल पककर आपसे आप गिरा था तथापि पथिक
 ने दोनों बातों को साथ होते देख यही समझा कि कौवे के उड़ने से ही तालफल गिरा। 
जहाँ दो बातें संयोग से इस प्रकार एक साथ हो जाती हैं वहाँ उनमें परस्पर कोई संबंध 
न होते दुए भी लोग संबंध समझ लेते हैं। ऐसा संयोग होने पर यह कहावत कही 
जाती है। )

Kaakataaleeyavatpraaptam  Drushtvaapi nidhimagratah.
Na svyam  daivamaadatte purusharthamapekshate.

Kaakataaleeya+vat + praaptam,    Kaakataaleeya = unexpectedly
Vat =like .    Drushtvaapi = drushtvaa + api.    Drushtvaa =
by seeing.   Api = even.   Nidhimagratah = nidhim + agratah.
Nidhim = treasure.    Agratah = in front of.    Na = not.
Svyam= self.     Daivamaadatte = daivam +  aadatte.   Daivam =
fate, god.    Aadatte = accept.   Purushaartham= entrepreneurship.
strenuous efforts .    Apekshate = is expected.

i.e.    If  accidentally and unexpectedly one sees before him a
treasure, he has to make strenuous efforts to possess  it. God
will personally not hand over the treasure to him.

(In Sanskrit literature  there are many fables which deal with
various aspects of human behaviour, one of which is known as
'Kaakataleeya nyaya' . This fable is about a  traveler who was
sitting below a palm tree.  While a crow was flying from the top
of the tree, simultaneously one ripe palm fruit fell down. As such
things happen unexpectedly, the traveler mistakenly construed it
as a single act.)

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