वातोल्लासितकल्लोल धिक् ते सागरगर्जनम् |
यस्य तीरे तृषाक्रान्तः पान्थः पृच्छति वापिकाम् || - शार्ङ्गधर
भावार्थ - तेज वायु के चलने के कारण ऊंची ऊंची लहरों से
परिपूर्ण और गरजते हुए ओ समुद्र ! तुझे धिक्कार है कि तेरे
तट पर प्यास से व्याकुल एक पथिक को पूछना पडता है कि क्या
निकट ही कहीं कोई पीने योग्य जल का तालाब है |
(उपर्युक्त सुभाषित भी एक ' अन्योक्ति' है , जिसे 'सागरान्योक्ति ' के
रूप में वर्गीकृत किया गया है | किसी धनवान व्यक्ति का धन यदि उस
की कृपणता के कारण किसी अभावग्रस्त व्यक्ति की सहायता के लिये
उपलब्ध नहीं हो परन्तु उसे किसी साधारण व्यक्ति से सहायता मिल जाय
तो इसी भावना को इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया गया है | )
Vaatollaasita-kallola dhik tey Saagara-garjanam.
Yasya teere trushaakaantah paanthah prucchati vaapikaam.
Vaatollaasita = vaata+ullasit. Vaata = wind. Ullaasita =
caused to be agitated. kallola= billowing waves, Dhik =
shame on you. Yasya = whose. Teere = at the shore.
Trushaakaantah = very thirsty. Paanthah = a traveller.
Prucchati = enquires. Vaapikaam = a pond of potable water.
ou
i.e . O mighty Ocean ! Shame upon you. While you are
roaring and producing big waves on being agitated by the
blowing wind, a very thirsty traveller on your shore is making
enquiries about a pond where he can quench his thirst .
(The above Subhashita is also an 'Anyokti' using the Ocean as
an allegory. The idea behind this Subhashita is that of what use
are the riches of a miser if he can not use it to help a needy
person. An ordinary person who helps under such circumstances
is more useful.)
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