ग्रासोद्गलितसिक्थस्य करिणः किं गतं भवेत् |
पिपीलिका तु तेनैव सकुटुम्बोपजीवति ||
-प्रसंग रत्नावली
भावार्थ - एक हाथी के मुंह् से गिरे हुए भोजन के एक
ग्रास से उसको तो कोई विशेष हानि नहीं होती है, परन्तु
चींटियों का एक संपूर्ण परिवार उस गिरे हुए ग्रास से अपना
जीवनयापन कर सकता है |
(उपर्युक्त सुभाषित भी एक अन्योक्ति है और 'संकीर्णान्योक्ति'
शीर्षक से संकलित है | लाक्षणिक रूप से इसका तात्पर्य यह
है कि धनवान व्यक्तियों के लिये जो धनराशि मुंह् से उगले
हुए एक ग्रास के समान तुच्छ होती है वही किसी गरीब व्यक्ति
के परिवार के भरणपोषण के लिये पर्याप्त होती है |)
Graasodgalitsikthasya karinah kim gatam bhavet.
Pipeelikaa tu tenaiva sakutumbopajeevati.
graasodgalitasikthasya = graasa + udgalita= sikthasya.
graasa = bite, a bitten morsel. Udgalit =oozed out.
Sikthasya = of a lump of mouthful food. Karinah =
elephants. Kim = what ?/ Gatam = gone away.
Bhavet = happen. Pipeelikaa = an ant. Tu = but,and.
Tenaiva = from the same. Sakutumbopajeevati =
sakutumba + upajeevati. Sakutummba = with its
entire family. Upajeevati = be supported by, subsist.
i.e. A morsel of chewed food falling on the ground
from the mouth of an elephant is of no significance to
him, but the entire community of ants can subsist upon
it for some time.
(The above Subhashita is also an 'Anyokti' (allegory).
The idea behind it is that for the very rich persons an
amount of money which is like a morsel of food oozed
out from the mouth, the same can sustain a poor family
for a long period. )
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