रत्नेरापूरितस्याSपि मदलेशोSपि नाSम्बुधे: |
मुक्ताः कतिपया: प्राप्य मातङ्गाः मदविह्वलाः || - शार्ङ्गधर
भावार्थ - समुद्र यद्यापि रत्नों से भरा हुआ होता है , फिर भी
इसका उसे कोई अहंकार नहीं होता है | इसके विपरीत यदि मातङ्गों
(पर्वतों में निवास करने वाले किरात आदिवासियों) को कुछ मनके भी
मिल जायें तो वे अहंकार से भर उठते हैं |
(यह सुभाषित भी एक अन्योक्ति है और 'समुद्रान्योक्ति' शीर्षक से
संकलित है | लाक्षणिक रूप से इस में महान और सज्जन व्यक्तियों
की तुलना एक समुद्र से की गयी है और यह प्रतिपादित किया गया है
कि महान व्यक्ति अपनी समृद्धि पर गर्व नहीं करते हैं जब कि साधारण
व्यक्ति थोडी सी भी उपलब्धि पर अहंकार से भर उठते हैं | )
Ratneraapooritasyaapi madaleshopi naambudhe |
Muktaah katipayaah praapya matangaah madavihvalaah.
Ratneraapooritasyaapi = ratneraa + pooritasyaa + api.
Ratneraa = various types of precious stones. Pooritaasya=
being full of. Api = even. Madaleshopi = mada + lesho +
api. Mada = pride. Lesho = a little bit. Naambudhe =
naa +ambudhe. Na = not. Ambudhe= the ocean. Muktaah =
ordinary beads. Katipayaah = a few. Praapya = acquired.
Maatangaah = aborigines living in mountains called 'Kiraata'
Madavihvakaah = wanton, unrestrained.
i.e. The Ocean, in spite of being full of various kinds of
precious stones is never proud of them. But people of Maatanga
tribe living in mountains become wanton on finding even a few
ordinary beads.
(This Subhashita is also an 'Anyokti' called 'Samudraanyokti'
using the Ocean as an allegory. The idea behind it is that noble
and righteous persons, although endowed with various qualities ,
are never proud of them, whereas ordinary people become wanton
and very proud even on achieving a little success .)
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