अस्वतन्त्राः स्त्रियःकार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम् | मनुस्मृति
विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे || - ९/ २
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने | -मनुस्मृति
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्य मर्हति || - ९/३ अ
भावार्थ - मनुष्य स्त्रियों को स्वतन्त्रता कदापि न दे | विषयासक्त
स्त्रियों को भी स्ववश में ही रखने का सतत प्रयत्न करे |
स्त्री कभी भी स्वतन्त्र नहीं रखने योग्य है | बचपन में पिता , यौवन
में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करे |
( उपर्युक्त दोनों श्लोक भी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ
में अपनी सार्थकता खो चुके हैं | ये श्लोक यही सिद्ध करते हैं कि विगत
में हमारा पुरुष सत्तात्मक समाज था , तथा स्त्रियों को आर्थिक और
सामाजिक स्वतन्त्रता नहीं थी | फिर भी 'मनुस्मृति' में तत्कालीन समाज
के नियमन के जो सूत्र है , उनमें अनेकानेक वर्तमान समय में भी उतने ही
सार्थक हैं जैसे वे पहले थे | अतः उसे एक ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में ले
कर उस से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं |)
Asvatantraah striyah kaaryaah purushaih svairdivaanisham.
Vishayeshu cha sajjantyah smsthaapyaa aatmano vashe.
Pitaa rakshati kaumaare bhartaa rakshati yauvane.
Rakshanti sthavire putraa na stree svaatantryamarhati.
i.e. Men should never give freedom to womenfolk act according
to their wish. They should even make special efforts to control women
engaged in sensual pleasures.
Women are not fit to be given freedom . In childhood they should be
under the control of their fathers, during youth under the control of
their husbands and in old age under the protection of their sons.
(The above two Shlokas have now lost all their relevance under the
present social structure, and tend to prove that the society was dominated
by men in olden times, and is till so in many communities. But the
codified law during the era of Manu is still relevant in many areas of
governance and we should take guidance from "Manusmriti" treating
it as reference material.)
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