अगुरुरिति वदतु लोको गौरवमत्रेव पुनरहं मन्ये |
दर्शितगुणैव वृत्तिर्यस्य जने जनितदाहेSपि ||
- सुभाषित रत्नाकर (शार्ङ्गधर )
भावार्थ - लोगों का कहना है और मेरा भी यही मानना है कि अगुर
(एक सुगन्धित वनस्पति जो जलाने पर भी सुगन्ध फैलाती है ) की
सभी इस लिये प्रसंशा करते हैं कि उस में जो गुण दिखाई देते है वे
उस के स्वभावगत गुण हैं तथा उसको आग में जलाने पर भी बने
रहते हैं |
(प्रस्तुत सुभाषित एक 'अगुर्वन्योक्ति' है | इस में अगुर नाम की एक
वनस्पति की विशेषता का वर्णन किया गया है कि वह स्वयं तो सुगन्धित
होती है , जलाये जाने पर भी चारों ओर सुगन्ध फैलाती है लाक्षणिक रूप
से इस का तात्पर्य यह है कि महान और सज्जन व्यक्ति विपत्ति के समय
भी अपने परोपकारी स्वभाव का परित्याग नहीं करते हैं | )
Agururiti vadatu loko gauravamatreva punaraham manye.
Darshitaguneaiva vrutttiryasya jane janitdaahepi.
Agururiti = aguruh + iti. Aguruh =the fragrant Aloe wood
and tree. Vadatu = say, speak. Loko = people. Gaurava-
matreva = Gauravam + atra + aiva. Gauravam = admiration.
atra = here. Aiva = really. Punaraham = punah + aham.
Punah = again. Aham = I. Manye = think. Darshit =
displayed, revealed. Gunaiva = guna +aiva. Guna= quality.
Aiva = really. Vruttiryasya = vruttih + yasya. Vruttih =
behaiviou, conduct. Yasya = whose. Jane = people.
Janitdaahepi = jaanit+ daahe+ api. Janit = produced, occurring.
Daahe = burning. Api = even.
i.e. People say and I also subscribe to the same view that the
'Agur' (Aloe wood tree) is admired by the people for its qualities
( fragrance) , which remains even on burning it .
(This Subhashita is an "Anyokti' (allegory) using the 'Agur' as a
metaphor. 'Agur' is a tree which emits sweet fragrance even on
burning and used to produce sweet fragrance during meditation or a
prayer. The underlying idea behind it is that noble and virtuous
persons do not shed their nature of helping the mankind even while
themselves facing hardships and imminent danger.)
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