दारिद्र्य भो त्वं परमं विवेकि गुणाSधिके पुंसि सदानुरक्तम् |
विद्याविहीने गुणवर्जिते च मुहूर्तमात्रं न रतिं करोषि ||
- सुभाषित रत्नाकर (सभातरंग )
भावार्थ - ओ दरिद्रता ! तुम बहुत ही विवेकपूर्ण (समझदार) हो और इसी लिये
तुम्हें सदैव ऐसे व्यक्ति ही प्रिय होते हैं जो बहुत गुणवान होते हैं परन्तु जो व्यक्ति
विद्याविहीन और गुणहीन होते है उन को तुम एक क्षण मात्र के लिये भी प्रेम नहीं
करती हो |
(अपवाद स्वरूप ही कोई विद्वान और गुणी व्यक्ति जिन्हें सरस्वतीपुत्र भी कहा जाता
है धनवान पाये जाते हैं और अधिकतर दरिद्र ही रहते हैं | इसके विपरीत धनवान व्यक्ति
सामान्यतः अशिक्षित या कम शिक्षित पाये जाते हैं | संस्कृत साहित्य में इसे लक्ष्मी और
सरस्वती के आपस में वैर के रूप में चित्रित क्या जाता है | इस सुभाषित में इसी भावना को
व्याज स्तुति के रूप में दरिद्रता की प्रशंसा करते हुए व्यक्त किया गया है |)
Daaridrya bho tvam paramam vivekee gunaadhike pumsi sadaanuraktam.
Vidyaviheene gunavrjite cha muhoortamaatram na ratim karoshi.
Daaridrya = poverty. Bho = O (addressing somebody. Tvam = you.
Paramam = very, extremely. Vivekee = discreet, judicious. Gunaadhike=
gunaa+adhike. Gunaa = virtues. Adhike = more, extraordinary. Pumsi =
persons. Sadaanuraktam = sadaa +anuraktam. Sadaa = a;lways. Amrakta=
fond of, beloved. Vidyaa = knowledge, Viheena = without. Gunavarjite=
without any virtues or qualities. Cha = and. Muhoortamaatram = even for
a moment. Na = not. Ratim =love, affection. Karoshi = does
i.e. O Poverty ! You are very judicious in selecting only extraordinarily
virtuous persons to bless them with your love, and never, even for a moment,
like those persons who are illiterate and without any virtues.
(There is a notion that very rich persons are seldom learned and virtuous, and
likewise very learned and virtuous persons are seldom rich. In Sanskrit this is
depicted as ennmity between Sarasvati (the goddess of learning) and Lakshmi
(the goddess of riches). The above Subhashita depicts this nicely as an irony
i.e. censuring in the guise of praising .)
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