रात्रौ जानुर्दिवा भानुः कृशानुः सन्ध्ययोर्द्वयोः |
पश्य शीतं मयानीतं जानुभानुकृशानुभिः ||
- सुभाषित रत्नाकर (कल्पतरु)
भावार्थ - अत्यन्त शीत ऋतु के आगमन पर मैने अपने घुटनों ,सूर्य
तथा अग्नि की सहायता ले कर शीत से अपना बचाव रात्रि में अपने
घुटनों को अपने पेट से लगा कर , दिन में सूर्य के प्रकाश में रह कर तथा
प्रातःकाल तथा सायंकाल दोनों समय आग ताप कर किया |
(प्रस्तुत सुभाषित भी 'दारिद्र्यवर्णनम्' शीर्षक के अन्तर्गत है | इस में
एक दरिद्र व्यक्ति अपनी व्यथा का वर्णन कर रहा है कि शीतकाल में उसके
पास शीत से बचने के लिये वे साधन नहीं है जो संपन्न लोगों के पास होते हैं
और उसे इन तीन प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर रहना पडता है | )
Raatrau jaanurdivaa bhaanuh krushaanuh sandhyayordvayoh.
Pashya sheetam mayaa-neetam Jaanu-bhaaanu-krushaanubhih.
Ratrau =during the night. Jaanurdivaa = jaanuh + divaa.
Jaanuh = knee. Divaa = daytime. Bhaanuh = the Sun.
Krushaanuh = fire. Sandhyayordvayoh = sandhyayoh+ dvayoh.
Sandhyayoh = Twilights . Dvayoh = both ( in the morning and
in the evening. Pashya = seeing. Sheetam = cold. Mayaa=
I ,myself. Neetam = obtained, adapted.
With the onset of winter season I protect myself from cold with the
help of my knees, the Sun and the fire, i.e.by crouching (with my knees
touching my breast) during the night , and during day time by basking
in the Sun shine , and by lighting a fire during the morning and evening.
(This Subhashita also deals with poverty. Here a poor person is telling
his woes during winter season , as he does not have other means for
protecting himself from cold that are available to rich persons.)
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