वाचां शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः |
सर्वभूतदयाशौचमेतच्छौचं परार्थिनाम् ||
- चाणक्य नीति (७/२० )
भावार्थ - वाणी की पवित्रता (दूसरों को कटुवचन न कहना), मन
(विचारों) की पवित्रता , इन्द्रियनिग्रह, तथा सभी जीवित प्राणियों
के प्रति दया की भावना का होना , ये सभी गुण मानव में दूसरों की
भलाई के लिये ही होते हैं |
(अन्य प्राणियों की तुलना में मानव के पास अधिक बुद्धि और विवेक
होता है जिस का सदुपयोग करने की प्रेरणा इस सुभाषित द्वारा दी गयी
है | इन्द्रियनिग्रह से तात्पर्य मनुष्य को प्रदत्त पांच ज्ञानेन्द्रियों (आंख,
नाक, जीभ , कान तथा त्वचा) और पांच ही कर्मेन्द्रियों ( हाथ, पैर, जीभ,
मूत्रद्वार तथा मलद्वार ) के ऊपर उसका पूर्ण अधिकार से है | इन पर
अधिकार न होने के परिणाम बुरे होते हैं | )
Vaachaam shaucham cha manasah shauchmindriyamograhah.
Sarvabhoot-dayaa-shauch-metatacchaucham paraarthiaam.
Vaachaam = talking. Shaucham = purity. Cha = and.
Manasah= heart. Indriyanigrraha = restraint of the organs of
sense. Sarvabhoota = all living beings. Dayaa = compassion,
mercy. Etat = all these. Paraarthinaam = for the sake of others.
i.e. Purity of speech (not speaking harshly with others) , purity
of heart (thoughts), restraint over the organs of sense, kindness
towards all living beings, all these virtues in a person are meant
for the benefit of others.
(In comparison to all living beings on the earth, the man is endowed
with more intelligence and power of discrimination through 5 organs
of sense namely eyes, nose, tongue, ears and skin (touch), and also
5 organs of doing action namely hands, feet, tongue, urinary tract and
anus. If a person has no control over these its result is miseries. The
underlying idea behind this Subhashita is that out of so many virtues
endowed to him those mentioned in the Subhashita are meant for the
benefit of others.)
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