अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरापि |
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च सत् ||
- चाणक्य नीति ( ११/७ )
भावार्थ - एक दुष्ट व्यक्ति के मन में जो दुर्भावना रूपी मैल छुपा
रहता है वह किसी तीर्थस्थान में सैकडों बार स्नान करने से भी उसी
प्रकार नहीं धुळ पाता है , जिस प्रकार किसी बर्तन में रखी हुई शराब को
आग में तपा कर उसे शुद्ध कर गुणकारी नहीं बनाया जा सकता है |
(अनेक वस्तुओं और पदार्थों पर लगे हुए मैल या अशुद्धि को जल से धो
कर या आग में तपा कर शुद्ध कर लिया जाता है | इस सुभाषित में भी
एक दुष्ट व्यक्ति की मनोवृत्ति तथा सुरा (शराब) की तुलना द्वारा यही
प्रतिपादित किया गया है कि दोनों के दोषों को उपर्युक्त साधनों से दूर
नहीं किया जा सकता है | )
Antargata-malo dushtasteerthasnaanashatairapi.
Na shudhyati yathaa bhaandam suraayaa daahitam cha sat,
Antargata = internal,hidden Malo = impurity, filth.
Dushtah + teertha +snaan+shataih+api. Dushtah = a wicked
person. Teertha = a place for a pilgrimage Snaana =taking
a bath. Shataaih + one hundred times. Api = even. Na =not.
Shudhyati = becomes pure. Yathaa = for instance. Bhaandam=
box, container. Suraayaa = liquor Daahitam = heated.
Cha = and. Sat = virtuous, pure.
i.e. Even if a wicked person bathes hundreds of times in the holy
waters of a pilgrimage centre. the evil thoughts in his mind can not
be washed out (removed) from his mind just like a pot containing
liquor can not become pure by heating it on fire.
(Washing with water or heating an impure object are the well known
methods of removing the impurities from various objects. Using the
simile of liquor for the evil thoughts of a wicked person, the author has
propagated that it is not possible to remove the shortcomings in both
the above cases.)
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