Thursday, 4 September 2014

Today's Subhashita.

किं तया  क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवलम्  |
या न वेश्येव सामान्या पथिकैरपि भुज्यते   ||

अर्थ -       उस धन संपत्ति का क्या किया जाय जो कि एक  दुल्हन  के समान केवल संरक्षित रहती है न कि एक साधारण वेश्या के समान जो जन सामान्य को उपलब्ध रहती है और जिसके सान्निध्य का सुख यायावर पथिक भी उठा सकते हैं |

( प्रकारान्त से इस सुभाषित में इस तथ्य को प्रतिपादित किया गया है कि धन संपत्ति जो  केवल संग्रह हेतु होती है उस से तो वह् संपत्ति अधिक श्रेयस्कर है जो एक वेश्या के समान जन सामान्य  के काम आती है |
सचित  धन की तुलना एक वधू से की गयी है और प्रवाह्मान धन की तुलना एक वेश्या से की गयी है.)

Kim tayaa kriyate lakshmyaa yaa vadhooriva kevalam.
Yaa na veshyeva saamaanyaa pathkairapi  bhujyate.

Kim = what.     Tayaa = by her.     Kriyate = does.     Lakshmyaa = Wealth.     Yaa = who.
Vadhooriva = vadhooh +iva.      Vadhooh = a bride.       Iva = like a.     Kevalam = only.
Na = not.      Veshyeva = veshyaa + iva.      Veshyaa = a prostitute.   Saamaanya =   ordinary.
Pathikairapi = pathikaih + api .      Pathikaih = travellers, wanderers.   bhujyate = to be enjoyed.

i.e.       Of what use is the wealth which stays protected  only in a household like a bride and not like an ordinary prostitute who is available to all and sundry and even stray travellers  can enjoy her hospitality.

( Indirectly this Subhashita asserts that the wealth which is just stored is of no use and the wealth which circulates among the masses is beneficial to the society.  The stored wealth is alluded to a bride and the wealth  incirculation to an ordinary  prostitute.)

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