Monday, 6 October 2014

Today's Subhashita.

अति तृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव  परित्यजेत्  |
अतितृष्णाभिभूतस्य   शिखा  भवति  मस्तके   ||

अर्थ -      अत्यधिक तृष्णा कभी नहीं करनी चाहिये परन्तु तृष्णा का पूरी तरह्  त्याग भी नहीं  करना चाहिये |
जो व्यक्ति अतितृष्णा के वशीभूत होते हैं  उनकी स्थिति मस्तिष्क  में आग लगे हुए एक व्यक्ति के समान होती  है |  (वे सही निर्णय नहीं ले सकते हैं )

 (किसी वस्तु या पद आदि की इच्छा  करना मानव का स्वभाव है  और यही मनुष्य को उन्नति करने  के लिये
प्रेरित करता है |  परन्तु यदि यह्  इच्छा असीमित हो जाती है तो वह् तृष्णा का रूप ले लेती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सही या गलत साधन में भेद नहीं करता है  और गलत निर्णय लेता है अर्थात उसके मस्तिष्क में आग सी लग जाती है  और अन्ततः इसका  का परिणाम हानिकार ही होता है |प्रस्तुत सुभाषित में इसी तथ्य को प्रदर्शित किया गया है |)

Ati trushnaa na kartavyaa trushnaam naiva parityajet.
Atitrushnaabhibhootasya shikhaa bhavati mastake.

Ati = extreme.       Trushnaa = desire, .    Ati trushna = excessive desire bordering on greed.  
Na = not.      Kartavyaa = to be done.   Naiva =   not.         Parityajet = discarded, renounced.     Atitrushnaabhibhootasya = Ati +trushnaa +abhibhootasya.       Abhibhootasya = a person overcome by ,    Shikhaa = flame, fire      Bhavati = happens,        Mastake =  in the head.

i.e.         One should never be  greedy but at the same time should not discard the  desire  altogether.
A person obsessed by greed is like a person whose head is aflame.

( Desire for any thing or a  position  etc. is the driving force among people and has resulted in all the progress mankind has achieved.   But when this desire is uncontrollable it turns into greed and to achieve such desire people do not bother about fair or unfair means to achieve it, as if their brain is on fire and they take wrong decisions, which ultimately result in their ruin.  This Subhashita warns us not to be greedy but at the same time not to abandon normal and achievable desires.)




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